उर्दू अदब इतनी ख़ूबसूरती से जज़्बातों को बयान करता है, शायद ही कोई और ज़ुबान वो मुक़ाम हासिल कर पायी हो अब तक। एक बेहद ही रूहानी ग़ज़ल है निदा फ़ाज़ली साहब की जो मेरे दिल के काफ़ी क़रीब भी है
ग़ज़ल — अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
अपनी मर्जी से कहा अपने सफ़र के हम है
रुख हवाओ का जिधर का है, उधर के हम है
पहले हर चीज थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में, किसी दुसरे घर के हम है
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम, कहा के हैं, किधर के हम हैं
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम है
कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं किस राहगुज़र के हम हैं
हम वहाँ हैं जहाँ कुछ भी नहीं रस्ता न दयार
अपने ही खोए हुए शाम ओ सहर के हम हैं
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बे-नाम ख़बर के हम हैं
Beautifully portrayed women’s baffled emotions
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